चिट्ठी कुदरत की

ऐ इन्सान,
सुना है तू मुझे अपने मेहबूब की तारीफ़ में रखता है,
आज पर मैं उस तुलना से कुछ ज़्यादा कहने आया हूँ,
अपनी ज़िंदगी खर्च तूने एक घर बनाया है,
आज ज़रा उसमे बैठ के देख भी ले,
जो इतने सपने देख परिवार सजाया है,
आज ज़रा पास बैठ उनकि बातें भी सुन ले,
मैं नहीं कहता तू ज़िन्दगी में तरक्की मत कर,
पर कभी रुक के ज़रा ऊपर सर उठा के भी देख लो,
तू दूर बैठे उस शख्स को तो अपने पास ले आया है ,
पर अपने साथ बैठे उस उदास चेहरे से कभी उसके दिल का हाल पूछा है ?
तूने दौड़ना सीख लिया,
ज़िन्दगी की दौड़ को जीतना सीख लिया,
पर आज ज़रा रुकना भी सीख ले,
अपने लिए तो बहुत जी लिया,
आज ज़रा दुनिया के लिए भी जी ले,

माफ़ कर देना मुझे जैसे मैने आज तक तुझे करा है,
तेरे किसी अपने से तुझे दुर नहीं करना चाहता था,
ना तुझे नुक्सान करना चाहता था,
बस थोड़ी खुद को बचाने की कोशिश कर रहा था,
मैं जानता हूँ तू मज़बूत है,
मुझे कल हरा देगा,
इस बात से मैं बेखबर नहीं था,
बस तुझे कुछ बताने के लिए रोका था,
हो सके तो मुझे यू दोबारा मजबूर ना करना,
अपने उस मेहबूब की तरह थोड़ा मेरा भी ख्याल रख लेना,
और अपने साथ बैठे से ज़रा उसका हाल भी पूछ लेना,

जाते हुए बस शुक्रिया करना चाहूँगा उनका जिन्होंने मुझे निराश नहीं करा,
जिन्होने अपनी जान की परवाह ना करके सब्कि जान की परवाह की,
जो रात भर घर नहीं गया की कोई और घर जा पाए,
जो घर से आज निकला की कल को तुम निकल पाओ,
मेरे सबक चाहे तो याद  मत रखना,
पर इन्सान बनके रहना, इतना ख्याल रख लेना।      
- कुदरत 


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