यह जवानी का दस्तूर भी कुछ अलग है, उम्र के साथ ज़माने की समाज आती है, पर इस समझ में सचाई खो जाती है, बचपन की शराफत भूल जाती है, गैरों से छोड़ नज़रे खुद से छुपने लगती है, हर मुस्कराहट कुछ दर्द छुपाती है, इंसान खुदगर्ज़ होना शुरू होता है, जिन्हें अपना बोलता है, उन्हें भी डरता है, अपने सपनों के लिए औरों को दर्द देता है, मान लिया की कुछ गुनाहों से दुनिया हसीं बनती है, पर क्या यह कीमत जायज़ थी, किसी के लिए हाँ तो किसी के लिए नही, यह एक पहेली है मेरे दोस्त, पर इसका जवाब मैं नही दूंगा, यह पहेली मैं आप पे छोड़ता हूँ।
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